मैं "एक बदनाम शायर" अब तक तो खुद के लिए ही लिखता आया था,
जो मुझमे था वही बस मैंने शब्दों में पिरोकर कागज़ पर उतार दिया.
अब मैंने कुछ कल्पना का सहारा लिया है,
आशा है आपको पसंद आएगा.
आपकी अनमोल टिप्पणियों के इंतज़ार में,
"एक बदनाम शायर"
धीरे-धीरे मंद-मंद चलती है पवन,
छूकर मुझे चली जाती है पवन.
सरगोशियों के एहसासों से भरी ये पवन,
देती है मुझको नित नए सपन.
चहचहाना चिडियों का, गुन्जाना भवरों का,
सब सुनती जाती है मदमस्त पवन.
दूर नील गगन में उड़ते पंछी कुछ छोटे कुछ बड़े,
कुछ काले कुछ नीले ओढे पंखो के दुशाले
जहाँ करते हैं विचरण , वो है मेरा वतन।
रूकती नहीं कहीं, चलती जाती है पवन,
देती संदेसा गतिमान होने का,
हर पल उन्नत बनने का,
गढ़ने का सफलता के नवकिर्तिमान.
देती मुझको जीवन ये पवन,
सबसे न्यारी सबसे प्यारी ये पवन.
मंगलवार, 29 जनवरी 2008
गुरुवार, 17 जनवरी 2008
कभी ग़ज़ल कभी आयत
कभी ख्याल कभी उसे याद लिखा,
कभी होश में कभी बेहोशी में बार-बार लिखा.
कभी आंसू लिखा कभी शबनम लिखा,
उन जर्द पत्तों पे नाम मैंने उसका कई बार लिखा.
कभी पूजा लिखा कभी इबादत लिखा,
समंदर की सुनहरी रेत पर हाल-ए-दिल हर बार लिखा.
कभी ग़ज़ल कभी आयत उसे लिखा,
हर जुमला तेरी याद से सराबोर लिखा.
कभी हकीक़त कभी फ़साना लिखा,
उसकी अदाओं को हमने इक जमाना लिखा.
कभी बेवफा कभी बावफा लिखा,
बेरुखी को भी उसकी हमने हमेशा प्यार लिखा.
कभी होश में कभी बेहोशी में बार-बार लिखा.
कभी आंसू लिखा कभी शबनम लिखा,
उन जर्द पत्तों पे नाम मैंने उसका कई बार लिखा.
कभी पूजा लिखा कभी इबादत लिखा,
समंदर की सुनहरी रेत पर हाल-ए-दिल हर बार लिखा.
कभी ग़ज़ल कभी आयत उसे लिखा,
हर जुमला तेरी याद से सराबोर लिखा.
कभी हकीक़त कभी फ़साना लिखा,
उसकी अदाओं को हमने इक जमाना लिखा.
कभी बेवफा कभी बावफा लिखा,
बेरुखी को भी उसकी हमने हमेशा प्यार लिखा.
क्या यही मुहब्बत है
हमें आता न था आंसू बहाना,
ये तो हमारे दोस्तों की इनायत है.
न कोई गिला है उनसे हमें ,
न उनसे कोई शिकायत है.
उम्र सारी कटी आरजू में उनकी,
दीदार की रस्में ही अब हमारी इबादत है.
वो जरा तवज्जो करें तो
कह सुनाएँ हम हाल-ए-दिल अपना भी,
क्या इतनी सी हमें इजाज़त है.
ढलके थे कुछ अश्क भी मेरी आँखों से
पर जुबां में हरक़त न थी,
हमसे हिमाकत न हुई,
गोया क्या यही शराफत है.
खबर उनके आने की सुन
कफ़न में अब चैन कहाँ मुझको ,
कोई बतलाये क्या यही मुहब्बत है.
ये तो हमारे दोस्तों की इनायत है.
न कोई गिला है उनसे हमें ,
न उनसे कोई शिकायत है.
उम्र सारी कटी आरजू में उनकी,
दीदार की रस्में ही अब हमारी इबादत है.
वो जरा तवज्जो करें तो
कह सुनाएँ हम हाल-ए-दिल अपना भी,
क्या इतनी सी हमें इजाज़त है.
ढलके थे कुछ अश्क भी मेरी आँखों से
पर जुबां में हरक़त न थी,
हमसे हिमाकत न हुई,
गोया क्या यही शराफत है.
खबर उनके आने की सुन
कफ़न में अब चैन कहाँ मुझको ,
कोई बतलाये क्या यही मुहब्बत है.
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