सूख गए आंसू भी अब, दिल में दर्द का समंदर ना रहा,
क्या कहें, हम प्यार में ना रहे या प्यार हम में ना रहा.
उड़ गए सारे पन्छी उस दरख्त से, किसी का वहाँ आशिया ना रहा,
सूना पड़ा अकेला दरख्त उसका कोई साथी ना रहा.
बंद हो गई उस दीवाने की आँखें भी, उसे होश ना रहा,
शायद उसके जिस्म में अब लहू का इक कतरा ना रहा.
उजड़ गई सारी बस्ती इक पल में,
किसी आदम का वहाँ अब नाम-ओ-निशा ना रहा.
सोचा करते थे आयंगे इक दिन आगोश में वो,
ग़ुम हो गए वो कहीं, अब मेरी तमन्नाओं का जहां ना रहा.
बंद पड़ी भवरों की गुंजन, किसी कली में अब रस ना रहा,
मेरे महबूब का अब मैं अपना ना रहा.
बंजर पड़ी ये धरती सारी , हताश बैठा वो धरती पुत्र,
उसकी झोली में अब बोने को इक दाना ना रहा.
क्या कहें, क्या रहा क्या चला गया,
हिसाब किताब करने का अब ज़माना ना रहा.
वो देखो विदूषक का जनाज़ा चला जा रहा,
अब हँसने का किसी के पास कोई बहाना ना रहा.
माना और भी गम है ज़माने में मुहब्बत के सिवा,
क्या कहू ऐ साकी गम गलत करने को अब पैमाना ना रहा.
पायंगे वो मुझ "बदनाम शायर" को अब कहाँ ,
उनके दिल में अब मेरा कोई ठिकाना ना रहा.
गुरुवार, 26 नवंबर 2009
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2 टिप्पणियां:
bahut badhiya badnaam shayar ji
वाह! शायर साहब क्या खूब लिखा है आपने...बड़े दिनों बाद आपकी रचना पढ़ने को मिलती है...आपकी रचनाओं की भावाभिव्यक्ति बहुत सुंदर होती है...शुभकामनाएँ...
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